मेरठ।
पिछले दो साल से मोहर्रम पर भी कोरोना का साया है। जिसके चलते न तो सोगवारों द्वारा जंजीरों से मातम करते जुलूस दिखाई दे रहे हैं और न सुबह के समय आमाले आशूर कराए जा रहे हैं। बता दें कि मेरठ के अब्दुल्लापुर में मोहर्रम निकालने की परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है।
मोहर्रम पर पिछले 700 साल से जुलूस निकालने की परंपरा जिले में बराबर चली आ रही है, लेकिन वर्ष 2020 में कोरोना संक्रमण के चलते इस परंपरा पर ब्रेक लग गया। मेरठ में मोहर्रम पर ताजिया रखने की परंपरा का आयोजन आजादी से भी पहले से होता आया है। यहां तक कि जब 1947 में देश के बंटवारे के समय सांप्रदायिक दंगे हुए थे उस दौरान भी जुलूस निकाले जाने पर कोई रोक नहीं लगी थी। अब्दुल्ला पुर में दो इमामबारगाह हैं। जहां से हर साल मोहर्रम की दसवीं को अलम बरामद होता था।
पिछले 20 साल से मोहर्रम के जुलूूूूूस के बाद तकरीर पढ़ने वाले नफस आलम बताते हैं कि पिछले साल से दो बार ऐसा मर्तबा हो गया जब सैकड़ों साल पुरानी परंपरा टूट गई है। इस बार भी न अलम बरामद हो रहा और न इमामबारगाह में मरसिया पढ़े जा रहे। उन्होंने बताया कि मोहर्रम की दसवीं को अब्दुल्लापुर में जुलूसे ताजिया मोहल्ला कोट बुनियाद चौक, पंडित चौक धर्मशाला से होते हुए बाढे़ की मस्जिद मोहल्ला गढ़ी में पहुंचता था। जहां पर दोनों जुलूस हुसैनी चौक पर एकत्र होते थे और इमाम हुसैन के दुनिया को इंसानियत का पैगाम केा बताया जाता था। सरकार की बंदिशों के बीच इस बार इमामबारगाह में भी कोई रौनक या किसी सोगवारों की मौजूदगी
नहीं है। कोरोना प्रोटोकाल के
चलते सरकार ने जुलूसों पर पाबंदी लगा दी है।
सोगवार अपने घर पर ही मातम कर रहे हैं और नौहे पढ़ रहे हैं। नफीस आलम कहते हैं कि सरकार ने जो भी किया है ठीक ही किया है। लोगों की सेहत पहले है। उन्होंने कहा कि इमाम हुसैन ने दुनिया को इंसानियत का पैगाम दिया था और कहा कि अपने वतन से मोहब्बत करो। मुहर्रम आतंकवाद के खिलाफ आंदोलन का नाम है। जिसे इमाम हुसैन ने कर्बला इराक में यजीद के खिलाफ किया। उन्होंने अपने परिवार समेत 72 शहीदों की कुर्बानी पेश की थी।